कोरबा(सेंट्रल छत्तीसगढ़):- काले हीरे की नगरी कोरबा के कोयले से आज हर एक जगह रोशन हो रहे हैं। मगर इन खदानों के पास बसर हो रही जिंदगियां कोयले की तरह स्याह (काली ) है। जमीनें खदान में समा गई, गुजर बसर का साधन खेती छीन गई। जो मुआवजा हाथ आया वह तो कब आया और कब खर्च हुआ कोई इसका कोई हिसाब ही नहीं है। अब जिंदगी की बची सांसे कोयले की कालिख में पेट पालने तक सिमट चुकी है।
कोरबा में एसईसीएल की तीन मेगा प्रोजेक्ट गेवरा, दीपका , कुसमुंडा है। कोरबा के ये कोयला खदान एक अजीबोगरीब चुनौती से रू-ब-रू कराते है। जिले के अनेकों परिवार अपने जीवन-यापन के लिए कोयला-खदानों पर निर्भर हैं। इनमें से आधे से अधिक घर कोयला चुनकर या बेचकर अपना जीवन चलते हैं। कोयले के खनन ने यहां की आबो-हवा भी खराब कर दी। खेत खराब हो गए। पानी प्रदूषित हो गया। पर्यावरण की दृष्टि से देखें तो लोगों के स्वास्थ्य भी खराब हो रहे हैं ।कोरबा जिले के अंतर्गत आने वाले कई खदान आते हैं ,जहां कुछ परिवार कोयले पर ही निर्भर है। इस खनन की वजह से यहां कोई अन्य उद्योग भी पनप नहीं पाया। जिले के कोयला खदान बंद हो जाए तब यहां के लोगों का क्या होगा और जीवन कैसे चलेगा? जिले में खनन से पहले लोग मुख्य रूप से खेती पर निर्भर थे। खदान शुरू होने के बाद कोयले के डस्ट और राखड़ से जमीनें बर्बाद हो गई ।उन्हें उसके बदले कंपनी की ओर से कुछ को नौकरी व मुआवजा मिला।लेकिन ऐसे परिवार भी है जिनके पास पर्याप्त खेती करने की जमीन नहीं थी ,उन्हें मुवाअजा तो मिला लेकिन नौकरी नहीं ।आने वाले समय के लिये अपने जीवनपार्जन का रास्ता नहीं दिखा रहा था। ऐसे में परिवार आज कोयला का खनन कर या बेच कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। इन परिवारों के बच्चे भी पेट की आग बुझाने की खातिर इसी भट्टी में झोंखे जा रहे हैं। अज्ञानता और मुफलिसी की मार इन परिवार के छोटे बच्चों को नशे की गर्त की ओर ले जा रहा है।